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रथं॑ युञ्जते म॒रुतः॑ शु॒भे सु॒खं शूरो॒ न मि॑त्रावरुणा॒ गवि॑ष्टिषु। रजां॑सि चि॒त्रा वि च॑रन्ति त॒न्यवो॑ दि॒वः स॑म्राजा॒ पय॑सा न उक्षतम् ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

rathaṁ yuñjate marutaḥ śubhe sukhaṁ śūro na mitrāvaruṇā gaviṣṭiṣu | rajāṁsi citrā vi caranti tanyavo divaḥ samrājā payasā na ukṣatam ||

पद पाठ

रथ॑म्। यु॒ञ्ज॒ते॒। म॒रुतः॑। शु॒भे। सु॒ऽखम्। शूरः॑। न। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। गोऽइ॑ष्टिषु। रजां॑सि। चि॒त्रा। वि। च॒र॒न्ति॒। त॒न्यवः॑। दि॒वः। स॒म्ऽरा॒जा॒। पय॑सा। नः॒। उ॒क्ष॒त॒म् ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:63» मन्त्र:5 | अष्टक:4» अध्याय:4» वर्ग:1» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मित्रावरुणवाच्य शिल्पविषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (दिवः) कामना करनेवालों के प्रति (सम्राजा) उत्तम प्रकार शोभित होनेवाले (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के सदृश यज्ञ और शिल्प के करनेवालो ! जो (मरुतः) कारीगर मनुष्य (शूरः) भयरहित वीरशत्रु को मारनेवाले के (न) सदृश (शुभे) कल्याण के लिये (सुखम्) सुखकारक (रथम्) विमान आदि वाहन को (युञ्जते) युक्त करते हैं और (गविष्टिषु) किरणों की सङ्गतियों में (चित्रा) अद्भुत (रजांसि) लोक और (तन्यवः) बिजुलियाँ (वि) विशेष करके (चरन्ति) चलती हैं उनके साथ (पयसा) जल से (नः) हम लोगों को आप दोनों (उक्षतम्) सींचिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो शूरवीर जनों के सदृश सुखकारक रथ पर चढ़कर यथेष्ट स्थान में घूमते हैं, वे अभीष्ट पदार्थ को प्राप्त होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मित्रावरुणवाच्यशिल्पविषयमाह ॥

अन्वय:

हे दिवः सम्राजा मित्रावरुणा ! ये मरुतः शूरो न शुभे सुखं रथं युञ्जते गविष्टिषु चित्रा रजांसि तन्यवश्च वि चरन्ति तैः पयसा नोऽस्मान् युवामुक्षतम् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (रथम्) विमानादियानम् (युञ्जते) (मरुतः) शिल्पिनो मनुष्याः (शुभे) कल्याणाय (सुखम्) सुखकरम् (शूरः) निर्भयो वीरः शत्रुहन्ता (न) इव (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविव यज्ञशिल्पकारिणौ (गविष्टिषु) किरणानां सङ्गतिषु (रजांसि) लोकाः (चित्रा) अद्भुतानि (वि, चरन्ति) विचलन्ति (तन्यवः) विद्युतः (दिवः) कामयमानान् (सम्राजा) यौ सम्यग् राजेते तौ (पयसा) उदकेन (नः) अस्मान् (उक्षतम्) सिञ्चतम् ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये शूरवत्सुखं रथमधिष्ठाय यथेष्ठे स्थाने विहरन्ति तेऽभीष्टं प्राप्नुवन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे शूरवीराप्रमाणे सुखकारक, रथात बसून अनेक स्थानी हिंडतात ते इच्छित पदार्थ प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥